वास्ता

सू-ए-गैर सकून क्यों ढूंडता, गर ठिकाना होता उस से वास्ते का !
इश्क में यह भी खूब रही सुखनवर
उसे मंज़िल का पता ना था और मुझे रास्ते का !!

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