चुपके से तो वो भी रोता होगा शायद...

काफ़ी देर छटपटाती है आलिंगन को,
और फिर चीख उठती है सुनी बाहों की तन्हाई !
काजल बिखरा है किसी के इंतज़ार में,
और सुलग रही है ज़ुल्फों में क़ैद रुसवाई !
दरवाज़े को ऐसे ताकती रहती हैं नज़रें,
रेगिस्तान में अकेला पेड़ जैसे ले रहा हो जंभाई !

यह इश्क़ उलझ गया है मुझसे ही,
जीतूं तो किस से और गर हारूं तो किस से यह लड़ाई !
चुपके से तो वो भी रोता होगा शायद,
पर्दों के पीछे ही अक्सर दम भरते हैं ये आंसू हरजाई !


चुपके से तो वो भी रोता होगा शायद...

0 comments: