मील का पत्थर

कुछ उलझ सी गयी हैं अब यादें
तुम्हारी ज़ुल्फों सी !
उंगलिओं से सुलझाने की कोशिश करता हूं
सर-सरा जाती है अतीत की फ़िज़ा जब !
और काग़ज़ पे कालिख हो रह जाती हैं
उलझी हुई गुथिआं अतीत की !
मैं भले ना मानूं पर पता है
काग़ज़ पे छाप पड़ी है तुम्हारी ज़ुल्फों की !
पर मिथ्या सी हो चली है अब हर छाप
जो पड़ी है अतीत के रास्तों पे !

मोजों में रख रखे हैं काँच के टुकड़े मैने
आज कल रास्ते खुद से चुभते नहीं हैं पावं में !
मुझे समझ नहीं आता के ये रास्ते
किताबों से क्यों नहीं होते !
पड़ाव मिलते हैं पूरे करने को एक बार में
और मैं बार बार एक ही सफ़ा खोल लेता हूं !
जिस सफे पे उस मील-पत्थर की कविता लिखी हुई है
जिस पर ख्वाहिश नाम का शब्द कुरेदा हुआ था !

मैं मील के पत्थरों को गिनता हूँ
के ज़िंदगी का सफ़र बहुत लंबा हो चला है !
कोई हमसफ़र मिले तो मौत तक का सफ़र आसां हो जाए !!

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