मायूसी

मेरे फेंके कंकरों से सिलवटों में बदलती शांत सी उस झील के किनारे
डुब्बक डुब्बक आवाज़ दिलों में मचे शोर को छुपा लेती थी !
तुम ढास लगाए मेरी पीठ के साथ बैठी
घास को उधेड़ हमारी ज़िंदगी बुन दिया करती थी !

आज भी छाओं तो वहीं इंतज़ार करती है हमारा
पर शायद अब बुनने को कुछ बाकी नहीं है !!

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