उलझन

फिर वो सूखा लेती है अपने बाल,
मेरी उंगलिओं के स्पर्श निचोड़ कर !
और बाँध लेती है कस के,
अपनी हया के 'रब्बर बैंड' में !
मैं सरका देता हूँ वो लट रुखसार से,
जिसने छुपा रखा था होंठों पे इक तिल को !
यूँ तो धब्बा है पर दूर उफक पे सूरज की तरह
उजागर होता है सुरख आसमान में वो तिल !


मैं सोचता हूँ इस चांद को कहाँ रखूं,
जो पूरी रात सोया रहा मेरे सिरहाने पे !!

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