तबायफ़

कोई बैठा होगा आज भी वहीं पे, इंतज़ार में, नज़र आसमान का सीना चीरते हुए, के ये दिन अभी ढला नहीं...
वो आज भी अकेली है और बन बैठी है तबायफ़ मेरी नाकामी के कोठे पे !

और इधर मैं भी एक कशमकश में के ये उधारी कब निबटेगी, के ये रात बाकी है अभी पूरी की पूरी...
मैने बेच दिया है एहसास तक उसके होठों का अपने होठों से उठा के और रह गयी है पीछे एक ख़स्ता चमड़ी !

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