सलाई

सर्दिओं की केचुली पहने इक याद, रात भर डसती रही,
मैं बुनता रहा आँसुओं से गिरहें, के जैसे तेरे शाल के धागे हों !
सूरमे की सलाई आखों में अब मत लगाया करो, इसमे पिरो लो नया धागा,
और बुन लो नयी शाम, तुम्हारी आँखों से टपक चुकी रातें सारी, जो मेरी थीं !!

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