एक लड़की जिसका नाम मोहब्बत नहीं

मैं लिखता हूँ तो लोग सोचते हैं के कोई इश्क़ की लकीर रास्ते से गुमराह हो गयी या कोई बेवफ़ाई की शिकन आई हो माथे पे| यूँ मुझे अनुभव नहीं अपने ही दर्द पे लिखने का; हमेशा दूसरों की ही कहानी दोहराई है अपने क़िस्सों में; पर चलो आज लोगों की तमन्ना पूरी कर देते हैं|
सही बात ये है के मैं लिख नहीं पाता अपनी ही ज़िंदगी पे क्योंकि मेरा खुद की मोहब्बत का किस्सा अभी अधूरा है| या शायद मैं सिर्फ़ मानता हूँ के अधूरा है; ता के एक आस बची रहे पूरा होने की| मेरी ज़िंदगी एक बबूल के पेड़ के जैसी है जो कांटों में रह के पूरा साल इंतज़ार करता है सावन में पीले फूलों का|
शामों के आड़े धागे और सवेरों के तिरछे धागे पिरो के मैं बना लेता हूँ अपनी ज़िंदगी की चादर| उस चादर में भर लेता हूँ मोहब्बत के रंग नीली सयाही से और सुनहरी शराब से| ये चादर ही मुझे काफ़ी है; यूँ भी क्या रखा है मेरे लिए उन महफ़िलों में जहाँ शराब हो पर सयाही नहीं|
मोहब्बत हो तो ऐसी के रात गुज़र जाए और फिर भी आस रहे के डायरी में कुछ पन्ने बाकी हों और शायद अभी भी सयाही बची हो कुछ! पर मेरी मोहब्बत एक मुंशी की डायरी है जिसमे ऩफा नुकसान दर्ज होता है| ऩफा कम, नुकसान ज़्यादा| नफे की बात आई तो, कभी कभी ऐसा भी होता है के मिल जाती है गुलाबों की चादर उन्हें जो सिर्फ़ एक गुलाब की राह देखा करते हैं| और लोग सोचते हैं मरने के बाद भला क्या ज़िंदगी!

मोहब्बत करने वालो की कैफियत ही कुछ और होती है| "बटालवी" को देख लो तो लगेगा के उसकी पैदाईश ही कविता को सार्थक करने के लिए हुई थी| हालाँ के था बिल्कुल उल्टा; उसकी कविता उसको सार्थक कर गयी|
मैं? मैं सोचता हूँ के मैं बस लिखता ही तो हूँ…

0 comments: