नयी चादर

अलसाए से दिनों में,
जब हम ऊब जाते थे नीरस शहर से !
खामोशी में बुनते थे कई ख्वाब,
पीपल के उस पेड़ पर टेक लगा के !
बारी बनाते थे ख्वाबों की हम,
वैसे ही जैसे घर घर खेलते हैं बच्चे अब भी !
और हर बार तुम जीत जाती थी,
मेरे काँधे पे रख के सर या गोद में बिखरा के ज़ूलफें !
ठगी ठगी में उंघने का नाटक करती थी,
और सज़ा लेती थी ख्वाब सिर्फ़ अपने !

मेरी बारी बाकी है, तुम कहां हो !
मैं तैयार हूं नये कपड़े पहने और नयी सफेद चादर लिए !!

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