हवा का रुख़

कितनी शब जला हूं मैं आदतन
ज़फ़ा की मज़ार पे बेसबब मगर !
पत्थर पे निशां ओर कितना गहरा होगा
हवा का रुख़ तै करता है दिए की उमर !!

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