निशाँ

एक-आध सांस रह जाती है पीछे खुश्क गले में आहों के बीच,
लहरें चुराती रहती हैं समय मेरे हाथ से, पैरों पे लगी मिट्टी को जोड़ जोड़ के !
और एक-आध लम्हा रह जाता है पीछे गीली रेत में सीपिओं के बीच,
जिसे मैं जीता रहता हूं बार बार, जीने का मकसद तोड़ तोड़ के !

यारा, जब मैं रेत पे पैरों के निशाँ बना रहा होता हूं,
और समंदर मिटा रहा होता है !!

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