मजबूरी

उससे सुनती थी किस्से, कहानियां और कविताएं,
अब कालिख हुए दिल से स्याही धोया करती है !
कश्ती एक, बाहों के घाट पे किनारे लगती थी,
अब आँसुओं के समंदर में खुद को डुबोया करती है !

एक एक रात वस्सल की जोड़ी थी उसने मिल्कियत,
अब एक एक शब हिजर को खोया करती है !
कोयल ने अंडे तो दे दिए कौए के घोंसले में,
पर रोज़ शाम दूर से उन्हें देख रोया करती है !

दुपट्टे पे सजाती थी वो अरमानों के सितारे,
अब सांझ के ख्यालों से चुन्नी भिगोया करती है !
किताब जो खुद उठ के चिराग जला जाती थी,
आज अपनी ही जिल्द में छुप, तन्हा सोया करती है !

आईनों से उलझाती रही वो चेहरे की चांदनी,
अब झील के पानी में चांद बोया करती है !
कली, रात से निचोड़ लेती थी चाशनी, ग़ज़ल बुनने के लिए,
वो कांटों में शबनम को अब पिरोया करती है !


ये ना कह, यारा, वो है ही नहीं,
वो आज भी तेरे गीतों में समोया करती है !

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