वक़्त का टुकड़ा

जिस वक़्त से तुमने आख़िरी बार दहलीज़ लाँघी थी,
घड़ी की सुइयाँ 12.10 के उस अटपटे वक़्त पे रुक गयी !
आज बहुत महीनों बाद इक शख्स ने,
तुम्हारे इसी घर में कदम रखे,
तो घड़ी की सुइयाँ वहीं से चलने लगी,
जैसे के घर को तुम्हारी बदल मिल गयी हो !


समय तो फिर से चल निकला,
बस वो महीने एक बेमाना सा वक़्त का टुकड़ा हो रह गये !

समय बदल जाता है मगर अक्सर पैबंद रह जाते है,
वैसे नंगे वक़्त के टुकड़ों पे !!

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