छाँव के टुकड़े

मैं छाँव के टुकड़े उठा के चल रहा हूं !
कोई छाँव मेरी सानी नहीं,
मैं किसी ओर के हिस्से की धूप ओड़े हुआ हूं !
टूटी हुईं आसानी से जुड़ती नहीं,
अपनी ही परछाईओं को जोड़ने से कतरा रहा हूं !
किसी शाम को मेरा इंतज़ार नहीं,
फिर भी सुबह से शब के फ़ासले तै किया हूं !
मेरा कोई वजूद नहीं,
मैं सायों में अपने अक्स ढूंड रहा हूं !

मेरे दिनों में कोई धूप नहीं,
कुछ छाँव के टुकड़े हैं, बस उन्हें उठा के चल रहा हूं !

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