मियाद

तुमसे अच्छी तो भला रात ठहरी, सवेरे के इंतज़ार की मियाद तो तै है...

रात

सूरज सर चढ़ते ही ज़िन्दगी से लड़ाई शुरू हो जाती है, और उधर चाँद सर पे आ के मिला देता है ज़िन्दगी से फिर से । इस समय को रात की जवानी कहूं या ढलती उम्र कहूं ! आसान सवाल भी कभी कभी कितना उलझा जाते हैं चंचल मन को...
रात बाकी है कुछ, कुछ बीत गयी; मगर गुफ्तगूं पूरी बाकी। कुछ जवाब सवालों की टोह में तो कुछ सवाल जवाबों की टोह में ।

सब सवाल ढलती उम्र के और जवाब जवां अभी...

धार

उंगलिओं को काटने के लिए तलवार ज़रूरी नहीं होती,
तीखे काग़ज़ भी घाव कर जाते हैं !

कुछ लड़ाईओं में ज़रूरत,
खून से ज़्यादा स्याही की होती है !

क़लम की धार तेज़ कर लेना,
जंग आज कल तलवारों से नहीं,
दूसरे रंग की स्याहीओं से होती है !!

इंतज़ार

इंतज़ार की कोई लंबाई तय नहीं होती !
इक बेल की तरह बढ़ता जाता है,
जब तक के जड़ से काट ना दो !!

कभी कभी इंतज़ार बरगद की तरह,
पूरी ज़िंदगी में फैल जाता है !
और गाड़ देता है अपनी जड़ें हर पहलू में !!

मौसमों से लड़ाई

कैंटीन में बैठे बैठे बेंच पे तुम्हारा नाम लिखा था,
और पीपल के एक जर्द पत्ते से ढँक दिया था, जब तुम आई !
चाए पीते पीते तुमने कहा था,
जल्द ही पतझढ़ के बाद पीपल पे नयी कोंपलें और नये सुरख पत्ते आएंगे,
जिनकी खुश्बू तुम्हे गीली मिट्टी की खुश्बू से भी ज़्यादा प्यारी है !


मुझे पक्का पता तो नहीं पर मान लेता हूं के,
आज भी अकेले में किसी का इंतज़ार करते हुए,
कॉफी पीते पीते तुम भी अपने नाखूनों से नैपकिन पे मेरा नाम कुरेदती होगी !


ज़्यादा कुछ नहीं बदला,
बस पीपल के सुरख पत्ते हरे हो गये हैं, मौसमों से लड़ते लड़ते !!

बहाना

"चलोगी मेरे साथ?", उस अभागे ने बस इतना ही पूछा था| और उसने जवाब देने में कुछ पल खर्च कर दिए और जवाब दिया भी नहीं; मगर पूछा, "कहां?"
इतना काफ़ी होता है कहीं भी ना जाने के बहाने के लिए...

गर चल दिए होते तो कहीं ना कहीं तो पहुंच ही जाते...