है हमें जाना कहाँ, चले हैं कहाँ को हम

गणतंत्र होने का अर्थ सिर्फ़ एक संविधान का लेखा पन्नों में लिख लेना नहीं है | मेरी नज़रों में इसका अर्थ है "बिना किसी के अधिकार की अवेहलना किए राष्ट्र निर्माण के लिए लोगों का स्व: शक्ति संपन्न होना"| लोगों की सशक्ति ही इस शब्द को सार्थक करती है|
अगर स्वतंत्रता अधिकार है तो गणतंत्रता उत्तरदायित्व है और इस से बड़ा और महान उत्तरदायित्व शायद ही कोई ओर हो |

पर इस गणतंत्र दिवस पे जब आपके संविधान का दरबान "राष्ट्रपति" ही राजनीतिक तौर पे पक्षपाती हो और भारत वर्ष के लोगों को अपने वार्षिक सम्भोधन में अपने ही देश के एक राजनीतिक दल पर कीचड़ उछाले तो मेरे मन में सिर्फ़ एक सवाल उठता है:
"है हमें जाना कहाँ, चले हैं कहाँ को हम"

पर मेरा गणतंत्रता में विश्वास अभी भी है क्यों के भारत के लोग अभी भी "ज़िंदा" हैं !
इस गणतंत्र दिवस पे मुझसे शुभ कामनाएं नहीं, थोड़ा विश्वास ले लीजिए !

नयी चादर

अलसाए से दिनों में,
जब हम ऊब जाते थे नीरस शहर से !
खामोशी में बुनते थे कई ख्वाब,
पीपल के उस पेड़ पर टेक लगा के !
बारी बनाते थे ख्वाबों की हम,
वैसे ही जैसे घर घर खेलते हैं बच्चे अब भी !
और हर बार तुम जीत जाती थी,
मेरे काँधे पे रख के सर या गोद में बिखरा के ज़ूलफें !
ठगी ठगी में उंघने का नाटक करती थी,
और सज़ा लेती थी ख्वाब सिर्फ़ अपने !

मेरी बारी बाकी है, तुम कहां हो !
मैं तैयार हूं नये कपड़े पहने और नयी सफेद चादर लिए !!

एक लड़की जिसका नाम मोहब्बत नहीं

मैं लिखता हूँ तो लोग सोचते हैं के कोई इश्क़ की लकीर रास्ते से गुमराह हो गयी या कोई बेवफ़ाई की शिकन आई हो माथे पे| यूँ मुझे अनुभव नहीं अपने ही दर्द पे लिखने का; हमेशा दूसरों की ही कहानी दोहराई है अपने क़िस्सों में; पर चलो आज लोगों की तमन्ना पूरी कर देते हैं|
सही बात ये है के मैं लिख नहीं पाता अपनी ही ज़िंदगी पे क्योंकि मेरा खुद की मोहब्बत का किस्सा अभी अधूरा है| या शायद मैं सिर्फ़ मानता हूँ के अधूरा है; ता के एक आस बची रहे पूरा होने की| मेरी ज़िंदगी एक बबूल के पेड़ के जैसी है जो कांटों में रह के पूरा साल इंतज़ार करता है सावन में पीले फूलों का|
शामों के आड़े धागे और सवेरों के तिरछे धागे पिरो के मैं बना लेता हूँ अपनी ज़िंदगी की चादर| उस चादर में भर लेता हूँ मोहब्बत के रंग नीली सयाही से और सुनहरी शराब से| ये चादर ही मुझे काफ़ी है; यूँ भी क्या रखा है मेरे लिए उन महफ़िलों में जहाँ शराब हो पर सयाही नहीं|
मोहब्बत हो तो ऐसी के रात गुज़र जाए और फिर भी आस रहे के डायरी में कुछ पन्ने बाकी हों और शायद अभी भी सयाही बची हो कुछ! पर मेरी मोहब्बत एक मुंशी की डायरी है जिसमे ऩफा नुकसान दर्ज होता है| ऩफा कम, नुकसान ज़्यादा| नफे की बात आई तो, कभी कभी ऐसा भी होता है के मिल जाती है गुलाबों की चादर उन्हें जो सिर्फ़ एक गुलाब की राह देखा करते हैं| और लोग सोचते हैं मरने के बाद भला क्या ज़िंदगी!

मोहब्बत करने वालो की कैफियत ही कुछ और होती है| "बटालवी" को देख लो तो लगेगा के उसकी पैदाईश ही कविता को सार्थक करने के लिए हुई थी| हालाँ के था बिल्कुल उल्टा; उसकी कविता उसको सार्थक कर गयी|
मैं? मैं सोचता हूँ के मैं बस लिखता ही तो हूँ…

हमनवाई

रोज़ सवाल उठाते हैं मज़हब के ठेकेदार
के कैसे हो जाएं हमनवा काफिरों के साथ !
यूँ रोज़ नमाज़ पड़ी जाती है मस्जिद में
सामने वाले मंदिर की घंटिओं के साथ !!