बिरहनों के लिए

बचपन में मैं अक्सर सोचता था,
के हम बारिश के वक़्त ही काग़ज़ की कश्ती क्यों बनाते हैं,
या खाली पीरियड में ही काग़ज़ के जहाज़ क्यों बनाते हैं,
पर फिर उम्र के साथ साथ ये मान लिया के,
हर चीज़ का अपना वक़्त और जगह मुकरर होता है !

जैसे बिरहन का...

मुझे लगता है स्टेशन बिरहनों के लिए ही बनाई जगह है,
और गाड़ी का छूटना वो समय !
मैं प्लॅटफॉर्म पे खड़ा,
तकता गुज़रती खिड़कीों को,
और हर खिड़की में से तुम्हारा झँकता चेहरा !!

उस साल की बारिश

अभी ख्वाबों ने गये दिनों का किवाड़ खोला ही था,
झरोखे में से चाँदनी ने पायल की खनक सी दस्तक दी !
खिड़की में से देखा तो चाँद के इर्द गिर्द,
दो सितारे तुम्हारी तरह ही आँखें मलते उठ बैठे !
ये अभी अपनी अलसाई पलकें झपक ही रहे थे,
उधर कोने में दो सितारे छुपन छुपाई खेलने लगे !
इधर एक शर्मिला सा सितारा अपने में ही सिमटा,
बादल के पीछे छुपने की कोशिश कर रहा है !
चाँद के देखते देखते ही,
दो बादल आपस में ही लड़ दिए !


फिर,
बहते आँसुओं जैसे टूटते सितारे !!

उस साल की बारिश अभी भी रोज़ होती है !!

लंबे सफ़र

वो बुरका पहने हुए लड़की,
church की बाहर वाली दीवार के झरोखें में से,
रोज़ prayer होता देखती रहती !
मुझे लगता जैसे कोई कोयल,
कौए के घोंसले में बसने का बहाना कर रही हो !
फिर मालूम पड़ा उसका महबूब catholic है !


और वो समझना चाहती है के,
आयत से verse तक का सफ़र कितना लंबा है !

एक कप चाय

सर्दिओं का अलसाया सा इतवार,
और इतवार की कोहरे भरी दोपहरी !
दवात में पेन की डुब्बक,
और चूल्‍हे पे बर्तन चड़ाने की खनक !
उंगलिओं में पत्ती के दानों का एहसास,
और मोहब्बत का रूह से उंगलिओं तक का सफ़र !
हर दाने का पानी की लहरों में अपना रंग भरना,
और ईज़ल पे टिकी कैनवस से काग़ज़ों के पैड का फड़फड़ाना !
बेलन से लौंग-इलायची को पीस के छिड़कना,
और मोहब्बत के सब मंज़रों को घोलते पेन के स्ट्रोक्स !
कतरा कतरा घुलता अदरक का तीखा,
और काग़ज़ पे तंज़ कसती निब की धार !
तुलसी की पत्ती की गीली सी खुश्बू,
और स्याही से ज़िंदगी पाते शब्दों का स्वाद !
अंत में दूध से धुलता सारा रंग,
और धूप के इंतज़ार में हवा से करवट लेते शब्द !
फिर सब नितार लिया छननी से,
और उड़ेल दी मोहब्बत कोरे काग़ज़ों पे !

एक कप मसालेदार चाय आज फिर काग़ज़ पे एक मोहब्बत ज़िंदा कर गयी !
मगर मेरे वजूद में छननी में बची हुई ज़ाया चाय-पत्ती सी,
मोहब्बत बाकी रह जाती है !!

सपने

सुनो !

मेरे होठों पे तिन नहीं है,
पर मेरी ठोडी पे मस्सा है !

मेरी ज़ूलफें भी कोई रात या कोई घटा नहीं,
बस मेरी ही उलझनें हैं !

मेरी उंगलिओन में सर्दी वाली धूप सी गर्मी नहीं,
बस मेरे गुनाहों की टेढ़ी मेढी कहानियाँ हैं !

मेरी आँखें कोई झील या कोई समंदर नहीं,
बस मेरे ही सपने तैरते हैं !


मेरे सपने, जो मैने अपनी नींदो में से खंगाले हैं !
बाँटोगे इन्हें कुछ अपने सपनों से?
 


जब रात अपना बिस्तर बिछा लिया करेगी दुनिया की आँखों में,
हमारी आँखें उठ के खेला करेंगी छुपन-छुपाई !
वादा तो नहीं, कोशिश रहेगी ...

बहाने

थोड़ी देर की छत के नीचे बारिश की तरफ मेरा पीठ कर तुमको छुपाना,
असल में भीगी लटों से उलझे तुम्हारे भीगे रुख़ को निहारने का बहाना ही तो है !

या फिर चाँद की तरफ उंगली से इशारा करके तुमको कोई कविता सुनाना,
असल में चाँदनी में तुम्हारे चेहरे को तकने का बहाना ही तो है !

किसी दूसरी लड़की को देर तक तकना पर कनखिओं से तुम्हें भाँपना,
असल में तुमसे शरारत का बहाना ही तो है !


सब बहाने हैं, खुद ही को तुमसे मोहब्बत होने का सबूत देने के !!

Phase

Have entered that phase of single-hood, when even tinder refuses to install on your phone...

मुश्किल

इतना मुश्किल था नहीं, उसे भूल जाना !
यूं तो इतना मुश्किल था नहीं उसका मेरी यादों में जगह भी रख लेना !!

वक़्त का टुकड़ा

जिस वक़्त से तुमने आख़िरी बार दहलीज़ लाँघी थी,
घड़ी की सुइयाँ 12.10 के उस अटपटे वक़्त पे रुक गयी !
आज बहुत महीनों बाद इक शख्स ने,
तुम्हारे इसी घर में कदम रखे,
तो घड़ी की सुइयाँ वहीं से चलने लगी,
जैसे के घर को तुम्हारी बदल मिल गयी हो !


समय तो फिर से चल निकला,
बस वो महीने एक बेमाना सा वक़्त का टुकड़ा हो रह गये !

समय बदल जाता है मगर अक्सर पैबंद रह जाते है,
वैसे नंगे वक़्त के टुकड़ों पे !!

तुम

ज़हीन सी उस बच्ची के लिए,
बूढ़ी माई के बाल अच्छे या बुरे नहीं थे,
उसमे कुछ पाना या खोना, जीतना या हारना नहीं था,
उसके लिए बूढ़ी माई के बाल का उसके पास होना बस काफ़ी था !
इसी लिए अप्पा को उस दिन वो समझा ना पाई थी के कैसे लगे वो उसको !
क्योंके उस नन्हे से मन में काबिलियत नहीं होती,
मोहब्बत को शब्दों के हेर फेर में डालने की !


जैसे के मुझमे भी नहीं थी,
यारा, मेरे लिए तुम बस तुम थी !!

तकरीबन तकरीबन

उसे लगता है मोहब्बत करना तकरीबन तकरीबन आता है उसको; जैसा के तकरीबन सभी ही को आता है । पर जब भी वो किसी को टूट के मोहब्बत करना चाहता तो साली ज़िन्दगी आड़े आ जाती है। कभी महत्वाकांक्षाएं, तो कभी इच्छाएं, तो कभी कोई डर या फिर झिझक! वो अभिमन्यु की ही तरह मोहब्बत के चक्रव्यूह में घुस तो जाता है पर इसे हल करके आगे कैसे बढ़े, समझ नहीं आता। उसकी ही तरह पता नहीं तकरीबन तकरीबन हम सभी फेल क्यों हो जाते हैं इस सरल से काम में!

यारा, मैं सोचता हूँ अगर ये ज़िन्दगी ना होती तो शायद हम मोहब्बत तो कम से कम सही से कर पाते। इसी लिए तो शायद सब आशिक़ मौत के बाद वाले किसी जहां में जा के ही अपना इश्क़ परवान कर पाते हैं; चाहे किसी को भी ले लो हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल या कोई ओर...

जिन्दगीआं तो शायद मिलती हैं सिर्फ़ आग़ाज़ को, अंजाम के लिए बने हैं दूसरे जहाँ।