हवा का रुख़

कितनी शब जला हूं मैं आदतन
ज़फ़ा की मज़ार पे बेसबब मगर !
पत्थर पे निशां ओर कितना गहरा होगा
हवा का रुख़ तै करता है दिए की उमर !!

हिस्सा

नमक होता है समंदर में जैसे
तुम ज़िंदगी का हिस्सा बन जाओ इस तरह !
ढाल दो मुझे अपनी खुश्बू में ऐसे
पहली बारिश में जैसे रेत बन जाए गीली मिट्टी की तरह !
कुछ नहीं है इसके बाद
मत जाओ और थम जाओ इस लम्हे की तरह !!

वादा खिलाफी

इशक पे लिखा अभी तलक मिटाया नहीं,
ये भी क्या कम इतफ़ाकी है !
बोल तो मेरी गज़ल में भी हैं,
मुझे तेरी खामोशी काफ़ी है !
तेरे होठों का चुप चाप रहना,
फिर आखों का सब कह देना,
ये भी क्या वादा खिलाफी है !
के तुम महबूब हो, दुश्मन नहीं !!

neat

इक याद छटपटाती रहती है गले में
जो कर देती है किसी भी मद को dilute !
इक ठंडी सांस घुलती रहती है जुबां पे
जो रखती है ज़हन को chilled !
साथी बना तो देता है एक peg मेरी खातिर
पर पूछता है के क्यों पीते हो तुम neat !!

आगाज़

मैं तो कब का गुज़र गया होता
शायद थोड़ा इंतज़ार ओर बाकी है !
किश्तो में मुकम्मल होती इस ज़िंदगी की
शायद कुछ आज़माइश ओर बाकी है !
इक लम्हा ख़तम हुआ है
दूसरे का आगाज़ अभी बाकी है !

मिठास

रावी को बना चाशनी
उडेल ली चाँद की कड़ाही में !
सहरां की रेत को बना शक्कर
बिखरा दी मैने आसमाँ में !
सितारों को उधेड़ बना ली जलेबी
चमकीले रंग की !

तू ज़रा घूमा दे अपनी उंगली इनमे
और बना दे मीठा !!