तन्हाई

तन्हाईओं में मुकम्मल हो जाएं ऐसी रातों की कमी तो नहीं !
के तू मिले ही तस्सव्वुर में, ये लाज़मी तो नहीं !!

सुबह का भूला

मैं राह तकती हूँ जुगनूओं के सो जाने का,
तुम ने तो सितारे तोड़ सुलगा लिया था अपनी बैल-गाड़ी का लैंप !
और छोड़ गये थे पीछे एक मध्म सी रोशनी
जो अब भी सुलग रही है वरांडे के दरवाज़े पे !
किल्कारी सी मार खिल-खिला उठती है नदी
जब सूरज सर पे आता है और मैं धार बन बहती रहती हूँ दिन भर !
दिन ढले नदी के किनारे बरगद के पेड़ के नीचे,
कोई गुनगुना रहा होगा वही जो तुम गुनगुनाते थे !
और मुकम्मल हो जाता है सफ़र पन्छिओ का !
सुबह का भूला ना भी आए तो शाम कहाँ रुकती है,
किसी के इंतज़ार में !!

रेत

और उस दिन एक लड़की बोली के, यूं एक टक मत देखा करो, अच्छा नहीं लगता !!
-------------------------------------------------------------------------


|| रेत ||
तेरा ख्वाब आ के नींद से जगा जाता है
अतीत में से कोई लोरी ढूंढ, खुद को सुनाता रहता हूँ !
कोई होड़ लगी है तुझे मुकम्मल करने की
मैं तुझको पैमाना बना, हर शख्स को मापता रहता हूँ !
मेरी मुफ़लिसी ही मेरा जनून है
जहां मुठी भर मिलती हो, चुराता रहता हूँ
रेत फिस्सलती जाती है मुठी में से
मैं ओर ज़ोर से दबाता रहता हूँ !!

मृगतृष्णा

एक कहानी जो “on the rocks” पे शुरू होती है
स्मृति की गोद में बैठी दौड़ती रहती है मेरे ज़हन में !
मैं समझ नही पाता इसका अंत कहाँ है
और हर रात एक सी क्यों है !!