मैं राह तकती हूँ जुगनूओं के सो जाने का,
तुम ने तो सितारे तोड़ सुलगा लिया था अपनी बैल-गाड़ी का लैंप !
और छोड़ गये थे पीछे एक मध्म सी रोशनी
जो अब भी सुलग रही है वरांडे के दरवाज़े पे !
किल्कारी सी मार खिल-खिला उठती है नदी
जब सूरज सर पे आता है और मैं धार बन बहती रहती हूँ दिन भर !
दिन ढले नदी के किनारे बरगद के पेड़ के नीचे,
कोई गुनगुना रहा होगा वही जो तुम गुनगुनाते थे !
और मुकम्मल हो जाता है सफ़र पन्छिओ का !
सुबह का भूला ना भी आए तो शाम कहाँ रुकती है,
किसी के इंतज़ार में !!
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