रात आज़माइश की

रात की पगडंडीओं पे इक मुसाफिर आधा अधूरा सफ़र कर थक सो गया था| उसे इक ख्वाब नींद से जगा देता है उसके कान में फूस-फूसा के कुछ| अलसाई नज़रों से वो अपने ब्लैक-ऐंड-वाइट ख्वाबों में वही रंग भरने की कोशिश करता है जो उसकी ज़िंदगी की कैनवस पे नहीं हैं| रंगों से उलझते वो कैनवस के धागों से भी उलझ लेता है ये सोच के कुछ उलझेगा तभी कुछ सुलझेगा| कई रंगों से तो उसने खुद को भी बुना था एक बार, पर जाने क्यों कुछ अधूरा सा रह गया था उन बुनतरों में, जिसकी कमी उसे पता नहीं था कहां से पूरी करे| और उसे पता भी नहीं चला कब उसके अस्तित्व से इक धागा खिंचा और पूरा आशियाना जैसे उधड़ता चला गया| उसे याद था बस यह के के इक चिंगारी जली थी और पीछे रह गई थी राख उन्हीं धागों की और उनमे से आ रही थी खुश्बू वही सब रंगों की पर जो अब आंसू बन रुखसारों पे सूख जाते हैं| उसे महसूस होता है के जैसे किस्मतों ने उसे इक बार फिर से वही इम्तिहान दे दिया जिसमे वो पिछले साल ही फेल हुआ था; और इस बार भी उसे उस इम्तिहान का सिल्लेबस पता नहीं| इतने में रोशनी के साथ उजागर हुए कुछ सच उसके ख्वाब को धुँधला के चले जाते हैं|

प्रेम कुछ नहीं होता बस छलावा है जो ठग के चला जाता है और वापिस आता है जब आप फिर से अमीर हो जाओ किसी की मोहब्बत में बाज़ी लगा के| मोहब्बत ज़ुआ है और प्रेम मुझसे बेहतर ज़ुआरी – यह समझ आने में अभी वक़्त है!

0 comments: