कभी कोई कोशिश

कभी शब्दों से खरोच के हाथ की लकीरें बदलने की कोशिश करता है कोई
जब हाथों से ज़्यादा माथे पर लकीरें पाता है कोई !


कभी राह चलते हुओं पर भी प्यार लुटाने की कोशिश करता है कोई
जब आँचल में इतना प्यार बचा रह जाता है, छलकता पाता है कोई !


कभी बादल की ही छाओं में दो घड़ी आँख लगाने की कोशिश करता है कोई
जब घर पहुँचने के लिए थके हुए पैरों से इनकार पाता है कोई !


कभी नीम छोड़ आँसुओं  का लेप ज़ख़्मों पे लगाने की कोशिश करता है कोई
जब आँसुओं के सामने नीम को फीका सा पाता है कोई !


कभी अपने ही कंधे पर सर रख के रोने की कोशिश करता है कोई
जब लंगड़े आँसू किसी सहारे की टोह में पाता है कोई !


कभी बारहवीं मंज़िल पे बने अपने ही घर से दूर जाने की कोशिश करता है कोई
जब गिरने का नहीं कूद जाने का डर मन में पाता है कोई !


कभी इस चीज़ से तो कभी उस चीज़ से अपने ही प्यार को तोलने की कोशिश करता है कोई
जब बेवफ़ाई का भार कैसे बढ़ गया, समझ नहीं पाता है कोई...
बेवफ़ाई का भार कैसे बढ़ गया, समझ नहीं पाता है कोई...
समझ नहीं पाता है कोई...

2 comments:

  Mandy

22 December 2012 at 14:59

Amazing concept and very well portrayed !

  Sukesh Kumar

23 December 2012 at 15:01

thank you, Mandy saab !!
Your words are always an encouragement for me to write more...