ऐसे धड़कता तो यह रोज़ ही है
पर यूँ ही कभी कभी
फुट पड़ता है सुलगती राख पे मकई के दाने जैसे !
पर यूँ ही कभी कभी
फुट पड़ता है सुलगती राख पे मकई के दाने जैसे !
the pursuit of reason... the fight with self...
Posted by Sukesh Kumar Saturday, 2 March 2013 at 09:30
Labels: मेरा जीवन-मेरी कविता (My Life-My Verse)
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