मील का पत्थर

कुछ उलझ सी गयी हैं अब यादें
तुम्हारी ज़ुल्फों सी !
उंगलिओं से सुलझाने की कोशिश करता हूं
सर-सरा जाती है अतीत की फ़िज़ा जब !
और काग़ज़ पे कालिख हो रह जाती हैं
उलझी हुई गुथिआं अतीत की !
मैं भले ना मानूं पर पता है
काग़ज़ पे छाप पड़ी है तुम्हारी ज़ुल्फों की !
पर मिथ्या सी हो चली है अब हर छाप
जो पड़ी है अतीत के रास्तों पे !

मोजों में रख रखे हैं काँच के टुकड़े मैने
आज कल रास्ते खुद से चुभते नहीं हैं पावं में !
मुझे समझ नहीं आता के ये रास्ते
किताबों से क्यों नहीं होते !
पड़ाव मिलते हैं पूरे करने को एक बार में
और मैं बार बार एक ही सफ़ा खोल लेता हूं !
जिस सफे पे उस मील-पत्थर की कविता लिखी हुई है
जिस पर ख्वाहिश नाम का शब्द कुरेदा हुआ था !

मैं मील के पत्थरों को गिनता हूँ
के ज़िंदगी का सफ़र बहुत लंबा हो चला है !
कोई हमसफ़र मिले तो मौत तक का सफ़र आसां हो जाए !!

चेहरे

रोज़ शहर भर के चेहरे टटोलता हूँ
कुछ ढूंढता हूँ वो मिलता क्यूँ नहीं !
यूँ तो उस दिन आँखों में छुपा लिया था
पर अब दिखता तू क्यूँ नहीं !!

बीड़ा

और यूँ ही कभी भूल जाते थे दोनो खुद को
जब हो जाते थे स्वार्थी !

कई कई सालों तक
गूंगी उंगलिओं से टटोलते रहते वो शब्द
और पलकें करती रहती ज़ुबां की रीस

अब तो
मैं उंगली घुमा देता हूँ शराब के ग्लास में
और पलकें पोंछ देती हैं ज़ख़्मों की टीस

मैं चुप हूँ के कहने का बीड़ा तुम्हारा है इस बार !!

हादसा

ना तो गुलाब से कोई होंठ देखे
ना मोतीओं सी कोई हँसी
ना ही रसीले गीत लिखे
ना प्रीत की कोई धुन बजी !

पेड़ से हरे पत्ते भी यूँ झड़े, सूखे पत्तों की तरह
के जैसे हादसा हो गया हो कोई !!
हां, हादसा ही तो था !!!

रात

यह रात बैठी है दरवाज़े पे टकटकी लगाए!
किसी के इंतज़ार में नहीं,
पर किसी की तन्हाई पे कुण्डी लगाए !!

खामोश सी सोच को बर्फ के टुकड़ों पर रखे
सिरहाने तले कुछ जगी आँखों के ख्वाब रखे
उलझी है किसी कश-म-कश में !
ऐसी ही किसी रात मोहब्बत का जन्म हुआ था,
आँसुओं में भीगी आँखों के साथ !!

और मैं नतीजे पर पहुँचता हूँ के
ऐसा या वैसा होना सब ख्याल ही हैं !
वैसा होता तो भी क्या होता,
रात तो आख़िर रात होती है !!


और फिर रात भी रोआन्सा होकर बोली
के तुम भी तो तुम ही हो !!
और मुझे याद आया के कुछ खो गया है...

डूबता सूरज

यूँ तो बस डूबते सूरज की हल्की सी लौ होती है,
पर लगता है के,
चाहत बाकी होगी ज़रूर कहीं पे !
मुझे धुँधला सा ही सही, पर दिखता ज़रूर है !!

कहानी

कहानियाँ भी अजीब होती हैं !
कोई दो पल में सिमट जाती है,
तो कोई दो शब्दों में !

यूँ सदिओं इंतज़ार करते हैं वो पल,
के कोई टेबल-लेम्प में पूरी रात जागेगा !
और शब्द मिलते हैं लाइब्रेरी की अंतिम शेल्फ पे,
कोने वाली किताब के आख़िरी सफे पे, बुकमार्क के पीछे छुपे हुए !

मैं ढूंड रहा हूं उन दो शब्दों के आख़िरी अक्षर को !
कोई चुरा के ले गया है उसको,
अपनी डायरी की कहानी पूरी करने के लिए !

आज भी ऐसी डायरियां रद्दी के भाव बिका करती हैं !!
और राज़ छुपे रह जाते हैं कबाड़ी की दुकान में !!

खोज

मुद्दत हुई के कुछ गुम हो गया था
और अब कुछ खोजता रहता हूँ !
हक़ीकत ख्याल बन रही या ख्याल जो हक़ीकत हो गया था
बस यही सोचता रहता हूँ !!

नाम

ग़रीबी में इख्तिआर नहीं होता, किसी लेन-देन का ! क्या भला, कब उधारी एक नसीहत बन जाए जिसे ज़िंदगी भर पुगाना पड़े !
ओर कुछ था भी तो नहीं ग़रीब के पास, उसे देने को; बस इक नाम के सिवा !

कोई ऊँचा स्वर गुज़रा हो गली से,
और पीछे भीनी सी आह छोड़ गया हो जैसे,
और बस इस तरह मेरा नाम उसके होठों पे लरज़ा के रह गया !
जैसे पेड़ पे टपकी बारिश की बूँद,
काफ़ी देर पत्ते से उलझती रही हो,
और फिर गिर पड़ी हो घास पे !
वो नाम यूँ तो सूख गया है उसके गालों से,
पर जिसको आज भी वो कभी कभी नींद में बड़-बड़ाती है,
के जैसे पूरा कर रही हो जो अधूरा रह गया था !!