नाम

ग़रीबी में इख्तिआर नहीं होता, किसी लेन-देन का ! क्या भला, कब उधारी एक नसीहत बन जाए जिसे ज़िंदगी भर पुगाना पड़े !
ओर कुछ था भी तो नहीं ग़रीब के पास, उसे देने को; बस इक नाम के सिवा !

कोई ऊँचा स्वर गुज़रा हो गली से,
और पीछे भीनी सी आह छोड़ गया हो जैसे,
और बस इस तरह मेरा नाम उसके होठों पे लरज़ा के रह गया !
जैसे पेड़ पे टपकी बारिश की बूँद,
काफ़ी देर पत्ते से उलझती रही हो,
और फिर गिर पड़ी हो घास पे !
वो नाम यूँ तो सूख गया है उसके गालों से,
पर जिसको आज भी वो कभी कभी नींद में बड़-बड़ाती है,
के जैसे पूरा कर रही हो जो अधूरा रह गया था !!

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