रात

यह रात बैठी है दरवाज़े पे टकटकी लगाए!
किसी के इंतज़ार में नहीं,
पर किसी की तन्हाई पे कुण्डी लगाए !!

खामोश सी सोच को बर्फ के टुकड़ों पर रखे
सिरहाने तले कुछ जगी आँखों के ख्वाब रखे
उलझी है किसी कश-म-कश में !
ऐसी ही किसी रात मोहब्बत का जन्म हुआ था,
आँसुओं में भीगी आँखों के साथ !!

और मैं नतीजे पर पहुँचता हूँ के
ऐसा या वैसा होना सब ख्याल ही हैं !
वैसा होता तो भी क्या होता,
रात तो आख़िर रात होती है !!


और फिर रात भी रोआन्सा होकर बोली
के तुम भी तो तुम ही हो !!
और मुझे याद आया के कुछ खो गया है...

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