मुझमे अब और साहस नहीं बचा
है| चोंच में दबाए वो तोता जैसे रोटी के टुकड़े से कुछ ज़्यादा उठा ले गया था!
किसी तोते के परों से निचोड़ी
हो जैसे, अपनी आँखों में वही लाली भर लाया था वो| मुझे लगा के पी के आया है, फिर लगा
के शायद काफ़ी दीनो से सोया नहीं है! वो गुस्से में था| चौखट लाँघ आया था, पर जैसे
कई ओर लाँघने का फ़ैसला कर आया हो| पिछली बार जब घर आया था तो उसने मुझे दिन भर पीटा
था; ज़्यादा पी ली थी| यूं पीना तो पीना होता है, कम-ज़्यादा क्या ही मायने रखता है!
सिगरेट का धुआँ, शराब की गंध और आँखों में लाली - रोज़ एक सी कहानी दोहराती रहती| मुझे
ऐसा लगता मानो कोई घिस्सी हुई कैसेट्ट वी. सी. आर. में एक ही सीन पर अटक गई हो, बार
बार वही सीन दोहराता रहता; किसी फ्लैशबैक की तरह|
यूँ भी, अब ज़िंदगी फ्लैशबैक
में ही बीतने लगी थी| वो गई रात तक पी के ही घर आता था, अक्सर आता ही नहीं था; आता
भी था तो कभी बोलता ना था| हां, मगर कभी कभी उसके हाथ बोल पड़ते थे| एक बड़ी सी दीवार
आ गई थी हमारे बीच जिसमे 'गुस्सा' और 'खामोशी' नाम के दो झरोखे थे| घटनाएं भी अजीब
होती हैं; दुनिया भूल जाती है, समय कोई ओर शिकार ढूंड लेता है और भगवान भी माफ़ कर
देता है मगर अंतर्द्वंद चलता रहता है| जब किसी के मन में अंतर्द्वंद नहीं होता शायद
उसे ही मोक्ष कहते हैं| इस अंतर्द्वंद के सिवा मेरी तन्हाईओं का कोई ओर साथी भी तो
ना था| मैं दिन भर तन्हाईओं में फ्लैशबैक के टुकड़े जोड़ जोड़ कोई अधूरी पज़्ज़ल पूरी
करती रहती; पर जैसे कोई एक टुकड़ा गुम हो गया था और पज़्ज़ल कभी पूरी बनी ही नहीं|
आज कल हिसाब ना लगता था के मैं नफे में हूँ या घाटे का सौदा कर आई, यूँ बचपन में मेरा
गणित अच्छा था|
शुरुआत तो हमारी एक बच्पना
ही थी पर फिर अल्हड़ उमर का इश्क़ जवानी के प्यार में बदल गया | मंदिर के पीछे वाले
सकूल में जब छुट्टी हो जाती तो क्लास के उन्हीं बेंचों पे हमारे अरमां उछल-कूद करते
जहां नन्हों की अठखेलिओं पे ताला लग जाता था और उन पेड़ों के बीच हमारे मंज़र वात्सलय
के गुलाम हो जाते जहां बच्चों को आधी छुट्टी आज़ादी मिलती थी| हम बच्चों की ही तरह
अपने हाथ-पांव एक दूसरे से जोड़ जोड़ तुलना करते रहते के कैसे एक का हाथ दूसरे को पूरा
कर रहा है| कभी सोचते के इंसान अकेले ही पूरे पैदा क्यों नहीं होते! फिर सोचते, अगर
वैसा होता तो फिर अधूरे होने की अनूभूति कैसे होती! जब छुप-छुप के मिलना मुश्किल लगने
लगा तो हमने शादी कर ली|
कई कई दिनों तक बिस्तर में
ही रहते थे हम; पता नहीं कई कई दिन गुज़रे भी थे या मेरा भर्म था के समय को पंख लग
गये हों| वो फोटोग्राफर था और कैमरे पे उसकी उंगलियाँ जादू सा क्लिक करती थीं! जब वही
उंगलियाँ मेरे जिस्म पर टॅप-टॅप करती थीं तो मैं ना जाने कितने रंगों में बिखर जाती
थी और वो सब रंगों के समेट के एक तस्वीर बना देता था| उस साल का सावन भी उतना ना दहका
था जितनी हमारे जिस्मों में तपिश थी|
पर उस साल की शिशिर बड़ी कठोर
रही| काम नहीं रहा था उसके पास, ना कोई ओर आमदनी का साधन! फोटोग्रफी में चंद पैसे भी
ना बन पा रहे थे| कई कई दिन वो अपने प्रेम से ही अपने और मेरे पेट की आग बुझाता रहता|
मेरे लिए वही काफ़ी था; पर शायद उसके लिए मेरा यही काफ़ी होना, काफ़ी नहीं था|
फिर एक दिन किसी मैगज़ीन को
उसने वही तस्वीरें बेच दी जो तस्वीरें मेरे जिस्म के रंग समेट कर बनाई थीं| उस दिन
अपने हाथों से खाना खिलाया था उसने और मुझे वो बात बताई ना था| दो रातें ही गुज़री
थी उसके बाद बस, बाज़ार से गुज़रते हुए लोगों ने मुझे इतना नंगा किया जितना उन तस्वीरों
में भी ना थी! ऐसा लग रहा था के हर एक व्यंग जैसे दुशासन के पसीने की बूंद हो और जब
तक आँखों के बाँध बँधे रहे, आँचल का दुपट्टा सिकूडता रहा! उन तानों में शायद कटाक्ष
कम और मेरी किस्मत के लिए वेदना ज़्यादा थी!
मुझे कोई शिकवा ना था, ना कोई
ग्लानि थी| उन तस्वीरों में मेरी इज़्ज़त से ज़्यादा उसकी मोहब्बत थी| मेरे दर्द से
कहीं बढ़कर था उसका दर्द| मैने कई लोगो से सुना है के ओर किसी के रहे ना रहे पर काफ़िर
के ही दिल में ज़रूर खुदा रहता है| और तब से वो उदास रहने लगा! उदास वो लम्हा होता
है जब माझी सांझ को घर की राह देखता है| वो शख्स जिसका किनारा नहीं होता जब किनारा
ताकने लगे तो अधिकार की कुछ अवहेलना सी हो जाती है और शायद इसी लिए हर रात दरिया में
जवार आता है| फिर ना कभी टॅप-टॅप हुई ना ही जिस्म जले!
जीवन निरंतर है और यह निरंतरता
हम सभी में किसी एक निष्ठा पर टिकी होती है; उसकी निष्ठा सव्यं में थी| ज़िंदगी ने
बहुत ज़द्द-ओ-ज़हद दिखाई मगर उसका खुद में यकीन था| पर जो काम ज़िंदगी की ज़द्द-ओ-ज़हद
ना कर पाई वो एक मेरे प्यार ने कर दिया – उसका खुद से विश्वास उठ जाना! उदासी और ग्लानि
ने गुस्से का रूप इख्तिआर कर लिया| मैं कई बार समझाती के मुझे कोई शिकवा नहीं, मेरे
लए उसका होना ही काफ़ी था| किंतु जितना समझाती उसके गुस्से में उत्कटता उतनी ही बढ़ती
जाती| ‘उत्कटता’ शब्द शायद उसके गुस्से का कम मूल्यांकन था|
आज भी उसका मन-पसंद खाना बनाया
था मैने| थाली लेकर गई तो चिल्ला दिया वो - "क्यों करती हो यह सब अब भी?"
और मैं अमुक तलाशने लगी इस सवाल के जवाब को और सोचने लगी के जो 'क्यों' कभी अर्थहीन
था, आज सच में एक सवाल बन गया है जिसका जवाब ढूँढना बाकी है| | उसने रोटी के टुकड़े
को पीट कर फर्श पर दे मारा| फर्श का तो कुछ नहीं बिगड़ा पर दरारें जैसे मेरे दिल पे
पड़ गई हों| फिर जिस चौखट से आया था उसी से वापिस मूड़ गया; शायद आज वो चौखट लांघने
नहीं, दीवार के वही दोनों झरोखे बंद करने आया था| क्षितिज से एक परिंदा आया और उस टुकड़े
को उठा ले गया| और मैं बस ताकती रह गई जैसे कोई पपीहा सावन से पहेले ताकता है आसमान
की ओर!
बस, मेरा सावन कब का गुज़र
चुका है और उस समय को अब लकवा मार गया है !
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