भगत को ईलम होता बँटवारे का तो...

मुझे लगता है भगत सिंह ने 1929 में अस्सेम्बलि में बंब फोड़ने के बाद हरगिज़ गिरफत्तारी ना दी होती अगर उसे ज़रा सा भी ईलम होता के एक दिन उसके शहीदी समारक के लिए भी 12 गांव के बँटवारे किए जाएंगे|
उसने हरगिज़ गिरफत्तारी ना दी होती, गर उसे इस बात का ज़रा सी अंदाज़ा होता के एक दिन राजनीतिक महत्तवकांशाएं रखने वाले चन्द लोग देश के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ कर जाएंगे के देश के दो टुकड़े हो जाएंगे और फिर आगे जा के जब वो भी कम लगेगा तो तीन टुकड़े कर देंगे|
उसने हरगिज़ गिरफत्तारी ना दी होती, गर उसे इस बात का ज़रा सी अंदाज़ा होता के एक दिन जिन खेतों में पीली सरसों देखा करता था वहाँ लाशों के ढेर लगेंगे, जिन कुओं में से पानी भरा करती थी उसकी बहनें वहाँ पे उनको अपनी इज़्ज़त बचाने के रास्ते दिखेंगे, जिन हवेलिओं में तीओं के त्योहार होते थे वो सब खंडहर बन जाएंगे|

"टोबा टेक सिंह" की कहानी याद है ना, यारा! हुस्सैनीवाला सरहद की तरह, "बिशन सिंह" को भी अंत में तारों के बीच में अपना गांव मिल पाया| आज भी कुछ हिस्से बदलते रहते हैं. कभी ये "2 किलोमीटर" पाकिस्तान के तो कभी ये "1 किलो मीटर" हिन्दुस्तान के| बेचारे "मंटो" को तो "enclave" का विचार ही नहीं था, वरना वो कलम से स्याही नहीं खून उगल देता उन बेचारों के नाम जिनको २-२ देशों ने अपना बना के भी गैर करार दे दिया, मगर अपनाया किसी ने नहीं| ज़मीनों और लोगों के बँटवारे तो किए ही, हम लोगों ने शहीदों और स्मारकों के भी बँटवारे कर लिए|

मुझे विश्वास नहीं यकीन है के उस दिन भगत को ज़रा भी ईलम होता तो वो अपने आप को ज़िंदा रखता 1947 तक| अँग्रेज़ों से लड़ने के लिए नहीं, अपने ही लोगों की महत्तवकांशाओं से लड़ने के लिए वो ज़रूर ज़िंदा रहता|

आज हम लोग उन्हीं जैसे कुछ राजनीतिक महत्तवकांशाईओं में अपने अपने "भगत सिंह" ढूंढते हैं और खोखले "इंक़लाब" के नारों से दिलों को तस्सली दे लिया करते हैं !!!

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