मुस्कुराहट

चंचल सी धूप सुबह की ढलती है ज़हन में
जब शाम की धुंध के साथ
बासी पड़ जाती हैं सुबह की नज़में
आहिस्ता से करवटें लेते हैं कुछ तसव्वुर
रात के
अलसाए से कोहरे में
और मंद-मंद रोते रहते हैं सूखे पत्ते
जैसे कोई नयी धुन लिख रहे हों
बाँध लेता है समय जीवन को आलिंगन में
ऐसे जैसे थम गई हो दूर कहीं नदिया की धार !
फिर जब अरमान लेते हैं अंगड़ाईआं
सुबह की साँस के धुएँ के साथ
तो सुलगती हैं कुछ यादें
आरज़ू के तंदूर में
जैसे कोई सेंक रहा हो आँसू अपने
के तपा के शायद मुस्कुराहट में बदल जाएं !
और फिर आफताब जब जलता है
तो बुझ जाती है वो नज़म और
बस इक तपश सी बाकी रह जाती है !

शायद कोई मुस्कुराने ही वाला था !!

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