रात के अंधेरे में भी,
जब एक हल्की सी लौ बाकी रहती है,
तुम थोड़ी “chubby” सी क्यों ना हो,
उस अध-जली रोशनी में,
खिड़की के काँच के पीछे,
तुम हसीं लगती हो !
तुम्हारा इक धुँधला सा अक्स ही बन पाता है,
मेरे ज़हन में,
जब बादल छुपा लेते हैं, आधा अक्स चाँद का,
तो मुझे तुम हसीं लगती हो !
फिर उतर जाती है धीरे धीरे तो मुझे लगता है,
के शायद वो पागलपन था जो नशे ने किया था !
और मैं सोच में पड़ जाता हूँ के “सच्ची मोहब्बत” किसे कहते हैं?
शायद शराब में अब वो कैफियत नहीं बची जो मुझे गुमराह कर सके !!
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