घर

हम दीवारें बनाते तो हैं,
सकूँ से ज़िंदगी निभाने के लिए !
मगर घर रह जाता है इक पड़ाव भर सा,
रोज़ की रहगुज़र के बाद इक ठिकाने के लिए !
और रह जाते हैं क़ैद हो के,
हालातों की दीवारों में इक उम्र सहने के लिए !
ज़माने को इक ज़िंदगी दिखाने के लिए !
ज़माने से इक ज़िंदगी छुपाने के लिए !!

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