कितनी रातें हैं जो अंधेरों से रूबरू नहीं होतीं,
टेबल लैंप जला रहता है अध-बुने ख्यालों का टोला पेन की नोंक पे लिए...
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जॅंचता ही नहीं मेरे अल्फाज़ों को कोई ओर,
कलम डूबी है तेरी बड़ी बड़ी आखों के नीले समंदर में जब से !
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कितना अधूरा बनूँ के तुम्हे मुझे पूरा करने की हो चाहत...
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टेबल लैंप जला रहता है अध-बुने ख्यालों का टोला पेन की नोंक पे लिए...
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जॅंचता ही नहीं मेरे अल्फाज़ों को कोई ओर,
कलम डूबी है तेरी बड़ी बड़ी आखों के नीले समंदर में जब से !
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कितना अधूरा बनूँ के तुम्हे मुझे पूरा करने की हो चाहत...
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