नये रिश्ते

नासमझ अब भी समझती है
के उसे समझ है उसकी कीमत की,

जो पायल ज़बरदस्ती पहना दी थी जाते हुए |
और फिर कुछ सोच उतार दी थी वो पायल,
और पहन ली थी काँच की नयी चूड़ियाँ !!

और अब दोनों ही,
घंटों खिड़की के काँच को देखा करते हैं |
धूल पे उंगलीओं से बनाए निशानों में,
ढूँढने की कोशिश करते हैं वो,
जो गुम नहीं हुआ !!

जैसे हटा रहे हों धूल किसी किताब से,
जो बरसों से उपर वाले कमरे की,
पुरानी अलमारी में बंद पड़ी हो |
इस उम्मीद से के
किताब की कहानी अब भी वही होगी, जो तब थी !!

मिल जाती हैं कुछ पंखुड़ियाँ,
सूखे हुए उस गुलाब की,
जो गैर समझ कर,
यूँ ही रख छोड़ा था |
उस पन्ने के बीच जहाँ कहानी ख़तम हुई थी !!

देख कर अखर जाता है वो पन्ना,
जिसपे आगाज़ हुआ था उस रिश्ते का,
जो अच्छा होता गर अधूरा रह जाता |
कोई उम्मीद भर होती,
अंजाम तलक ले जाने की !!

ये नये रिश्ते समझ नहीं आते,
यह समझदारी से बने हैं, नासमझी से नहीं !!!
ये नये रिश्ते समझ नहीं आते...
समझ नहीं आते...

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