खेद

मैं अक्सर जाता हूँ वहाँ, जहाँ उसने हाथ छुड़ाया था !
नहीं, उसके निशान ढूँडने नहीं,
शायद ढूँडने उसे जिस शिद्दत से मैने हाथ बढ़ाया था !
नहीं, उसकी उम्मीद से नहीं,
शायद इस उम्मीद से कि बचा हो वो जो एहसास जताया था !
नहीं, कोई राह देखने नहीं,
शायद देखने कि क्या अलग था जो सिर्फ़ इस हाथ की लकीरों ने सताया था !

आज भी परखता हूँ कितनी थी शिद्दत और कितना था एहसास
कि क्यों उस हाथ को ज़रूरत नहीं रही इस हाथ की !
और उन लकीरों को कोई खेद नहीं...

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