खिजां

खुश्बू उड़ती रही इन दीवारों में,
जैसे तितली फड़फड़ा रही हो तेरे कान्धे पे !
घटा बरसती रही छत के नीचे,
जैसे अठखेलियां खेले बादल तेरी ज़ुलफ के नीचे !
चहचहाते रहे पंछी पर्दों के धागों पे,
जैसे तेरे चेहरे पे उग आया हो सूरज कोई नया !
रंगों से खेलती रही चादरें,
जैसे रंग उड़ेले हों मेहंदी निचोड़ के तेरे हाथों ने!


बहार आई थी उस वस्सल की रात,
और फिर उम्र भर मौसम-ए-खिजां रहा !!

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